किसी भी क्रिकेट मैच की कामयाबी का पहला पैमाना यही है कि स्टेडियम दर्शकों से कितना भरा – यानि कि गेट मनी कैसी रही? खिलाड़ियों को भी मैच में जोश तभी मिलता है, जब स्टेडियम खचा खच भरा हो. खाली पड़े स्टेडियम में क्रिकेट खेलने का क्या मजा? बाद में हालांकि कामयाबी की परिभाषा में मैच के टेलीकास्ट से मिला पैसा भी जुड़ गया पर खाली स्टेडियम में हो रही क्रिकेट को तो टेलीविजन पर भी देखने का मजा नहीं आता।

आईपीएल को अगर कामयाब गिना जाता है तो इसलिए क्योंकि क्रिकेट देखने दर्शक स्टेडियम आते हैं। चौका या छक्का लगाने वाले बल्लेबाज को एक और ऐसा शूट लगाने का जोश स्टेडियम में बैठे दर्शकों के शोर से मिलता है, न कि घर में टेलीविजन या मोबाइल पर मैच देख रहे क्रिकेट प्रेमियों की आवाजों से। आईपीएल में तो वैसे भी गेट मनी मेजबान की होती है (उदाहरण: मोहाली में मैच है किंग्स इलेवन पंजाब का तो गेट मनी उनकी) – इसलिए मेजबान फ्रेंचाइजी की यह ड्यूटी बन जाती है कि मैच देखने के लिए स्टेडियम आना दर्शक के लिए अच्छी यादगार साबित हो, न कि परेशानी और कष्ट वाली यादगार।

आईपीएल के पहले सीजन में ही यह सिलसिला शुरू हो गया था कि ज्यादातर मैच तय समय में खत्म नहीं हुए। मैच तय समय को पार कर गया… उसके बाद मैन आफ द मैच को एवॉर्ड देना, कप्तानों का इंटरव्यू। इससे और देरी हो गई। नतीजा ये रहा कि रात 8 बजे वाला जो मैच 11.00 बजे तक खत्म हो जाना चाहिए वह लंबा खिंचने लगे। बाद के सीजन में स्ट्रेटेजिक आउट, टेलीविजन अंपायर को रिप्ले देखने के लिए जो समय चाहिए और अंपायरिंग पर बहसबाजी तथा इसी तरह से धीमी ओवर गति ने मैचों को और लंबा खींच दिया। मैच रात 12 बजे की सीमा पार कर अगली तारीख में पहुंच रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि मैचों के रात 12 बजे के बाद तक खिंचने से खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ता पर उन्हें सब इंतजाम मिल जाते हैं – होटल वापस कैसे जाना है या डिनर कैसे मिलेगा वगैरा… वगैरा! पूछो स्टेडियम आए उन दर्शकों से जो आधी रात के बाद घर लौटते हैं।

देश के हर बड़े शहर में भी मेट्रो और लोकल एक तय समय तक चलती है। हर स्टेडियम के पास नहीं है मेट्रो/लोकल का स्टेशन, जहां 100 रूपए किराया लगना है वहां टैक्सी या ऑटो का मजबूरी का फायदा उठाने के लिए 300-400 रूपए मांगना कोई हैरानी वाली बात नहीं। अगर मैच देखने वालों में लड़कियां/महिलाएं हैं तो उन्हें सुरक्षित घर ले जाने की चिंता मैच देखने का सारा मजा किरकिरा कर देती है।

मैच तेजी से खत्म करने के लिए कप्तानों पर धीमी ओवर गति का जुर्माना लगा रहे हैं पर उससे कुछ नहीं हो रहा। इडेन गार्डंस में हैदराबाद के मैच के दौरान फ्लड लाइट्स का 14 मिनट के लिए फेल होना, वानखेड़े में दिल्ली कैपिटल्स के मैच में 40 में से 33 ओवर तेज गेंदबाजों ने फैंके, मुंबई – आरसीबी मैच में लसिथ मलिंगा की आखिरी गेंद को नो बाल होने के बावजूद न पकड़ने पर हुई बहस, किंग्स इलेवन पंजाब के विरूद्ध मैच में रोहित शर्मा के बार-बाार फील्डिंग बदलने से पारी 18 मिनट लंबी हो गई, फिरोजशाह कोटला में कोलकाता के विरूद्ध मैच में न सिर्फ सुपर ओवर – कोलकाता के सब्सटीट्यूट बदलने जैसे मसले चल रहे हैं और मैच समय पर खत्म नहीं हो रहे। जो आधी रात के मैच के बाद, पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बदौलत धक्के खाता कई घंटे बाद घर पहुंचेगा – वह अगले दिन काम पर कैसे जाएगा?

इसीलिए बार बार सुझाव यही है कि मैचों का समय बदलो। रात वाला मैच 8 बजे की जगह 7 बजे से शुरू कर दो। पिछले सीजन में ऐसी ही दिक्कतों के कारण प्ले ऑफ़ के मैच 7 बजे से शुरू कराए थे। ब्रॉडकास्टर को कोई नुकसान नहीं हुआ। मैच जरूरत से देरी तक चले तो टेलीविजन पर भी उसे पूरा नहीं देखते घरेां में तो क्यों नहीं दर्शकों पर तरस खाते और मैच का समय बदलते?

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