1990 में एक अखबार के द्वारा जब 17 साल के सचिन तेंदुलकर का इंटरव्यू लिया जा रहा था तो उन्हें एक प्रश्नावली थमाई गई थी। इसमें उनकी मनपसंद अभिनेत्री, मनपसंद भोजन, मनपसंद शहर, क्रिकेट के अलावा अन्य पसंदीदा खेल, पसंदीदा पुस्तक, फिल्म इत्यादि के बारे में तो पूछा ही गया था, साथ ही साथ एक सवाल पसंदीदा मित्र के बारे में भी था। जानते हैं तेंदुलकर ने इस सवाल का जवाब क्या दिया था? तेंदुलकर ने अपना पसंदीदा मित्र अपने बैट को बताया था।
सचिन तेंदुलकर ने कुछ भी गलत नहीं कहा था। वाकई एक बैट ही किसी भी बल्लेबाज का सबसे अच्छा दोस्त होता है, साथ ही एक बैट ही किसी भी बल्लेबाज का सबसे बुरा दुश्मन भी साबित हो सकता है।
खेल के क्षेत्र में यह नियम कुछ ज्यादा ही प्रभावी है कि यदि आपका प्रदर्शन अच्छा रहता है तो फिर आपके विरोधी भी आपको आगे बढ़ने से नहीं रोक सकते और यदि आपका प्रदर्शन खराब रहता है तो फिर आपके चाहे जितने रसूखदार मित्र हों, वे आपको आगे नहीं बढ़ा सकते। बल्लेबाजों के लिए भी यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है। यदि उनका बैट बोल रहा होता है और खूब रन बरसा रहा होता है तो फिर वे बल्लेबाज नई-नई बुलंदियां छूते हैं, लेकिन यदि उनके बैट से रन निकलने बंद होने लगते हैं तो फिर उन्हें चौतरफा आलोचना तो झेलनी ही पड़ती है, साथ ही टीम से बाहर भी कर दिया जाता है। तो उन्हें बुलंदियां नसीब होंगी या टीम से बाहर कर दिया जाएगा, यह उनके किसी भी रसूखदार मित्र या रिश्तेदार पर निर्भर नहीं करता, बल्कि उनके बल्ले के प्रदर्शन पर निर्भर करता है।
भारतीय क्रिकेटरों की ही बात करें तो कई ऐसे बल्लेबाज हुए हैं, जिनके बल्ले से जमकर रन बरसने की सूरत में उन्हें खूब वाहवाही, दौलत-शोहरत मिली और उन पर इनामों की बारिश हुई। वहीं जब-जब उनके बल्ले से रन निकलना कम हुए तो उनकी तकनीक पर सवाल उठे, उनकी जमकर आलोचना हुई और फिर उन्हें वह समय भी देखना पड़ा, जो कि किसी भी खिलाड़ी के लिए बहुत कष्टप्रद होता है। वह समय होता है, जब उन्हें पता चलता है कि उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया है।
उदाहरण के लिए वीरेन्द्र सहवाग, युवराज सिंह, रोहित शर्मा, सुरेश रैना, गौतम गंभीर जैसे बल्लेबाजों को ही देख लें। ये किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपने बल्ले के दम पर इन्होंने खूब नाम और पैसा कमाया और कई नए-नए कीर्तिमान भी स्थापित किए। जब इनके बल्ले से खूब झमाझम रन बरसे तो इन पर तमाम इनाम-इकराम की बारिश भी हुई, लेकिन जब-जब इनका बल्ला खामोश हुआ तो न केवल इनकी आलोचना हुई, बल्कि इन्हें टीम से भी बाहर कर दिया गया।
वीरेन्द्र सहवाग ने जब टेस्ट मैचों में तिहरे शतक बनाए, ओडीआई में दोहरा शतक बनाया तो उनकी तारीफों के पुल बांधने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी गई, वहीं जब उनके बल्ले की धार कुंद पड़ी तो 2013 में पहले तो उन्होंने इंग्लैंड के खिलाफ ओडीआई सीरीज के लिए टीम में शामिल नहीं किया गया और फिर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट सीरीज के दौरान भी टीम से निकाल दिया गया।
2011 के विश्व कप में युवराज सिंह ‘प्लेयर ऑफ द सीरीज’ बने थे। इससे भी पहले 2007 के पहले टी-20 विश्व कप में भी उनके बल्ले की चमक कुछ ऐसी थी कि पूरा क्रिकेट जगत चकाचौंध हो गया था, खासकर इंग्लैंड के खिलाफ 1 ओवर की सभी 6 गेंदों पर छक्के लगाने के बाद तो उनकी शोहरत आसमान छू रही थी। वहीं दूसरी ओर 2014 के टी-20 विश्व कप में जब उनके बल्ले से रन नहीं निकले और फाइनल में भारत की हार के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया गया तो वे भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की नजरों में सबसे बड़े विलेन बन गए। फिर तो टीम में उनका आना-जाना लगा रहा।
गौतम गंभीर ने 2007 के टी-20 विश्व कप के फाइनल में भी भारत की ओर से सबसे ज्यादा 75 रन बनाए थे और 2011 के विश्व कप के फाइनल में भी भारत की ओर से सबसे ज्यादा 97 बनाए थे। उनकी खूब तारीफ हुई। बाद में 6 ओडीआई मैचों में उन्हें भारतीय टीम की कप्तानी करने का मौका भी मिला। इसके बावजूद जब उनके बल्ले से रन नहीं निकले तो उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। ऐसे ही रोहित शर्मा और सुरेश रैना को भी अच्छे प्रदर्शन के लिए सीमित ओवरों वाली भारतीय टीम का कप्तान बनाकर पुरस्कृत किया गया तो खराब प्रदर्शन के बाद टीम से बाहर करने में भी चयनकर्ताओं ने कोई हिचक नहीं दिखाई।
ऐसा इन बल्लेबाजों के साथ ही हुआ, ऐसा नहीं है। दुनिया भर में यही होता है। किसी भी खिलाड़ी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो वही उसका सबसे अच्छा मित्र साबित होता है, वहीं खराब प्रदर्शन उसे सबसे बुरे दुश्मन की तरह नुकसान पहुंचाता है।